Sunday, October 9, 2011

राम सीता की जोडी ..


जब लोग कहते हैं की किसी पति पत्नी की जोड़ी राम सीता जैसी है, तो शायद लोगों का मतलब एक दूसरे की ओर प्रेम एवं परायणता से होता है. पर जब मैं अपने माता पिता की जोड़ी को देखती हूँ तो मुझे सचमुच राम सीता की जोड़ी याद आती है. केवल उनके नाम, गुण स्वभाव राम सीता की तरह हैं, उन्होंने अपने जीवन में राम सीता के समान ही अपार दुःख भी सहे हैं.

जिस तरह से राम सीता को विवाह के उपरांत ही वनवास दे दिया गया था, मेरे माता पिता ने भी उसी तरह अपना पूरा जीवन वनवास में ही व्यतीत किया है. पापाजी की नौकरी लगते ही परिवार की आर्थिक स्थिति को संभालने की ज़िम्मेदारी उनके कन्धों पर गई. उन्होंने केवल परिवार की आर्थिक स्थिति, परन्तु सभी बच्चों के भविष्य को संवारने का बीड़ा भी उठा लिया. सक्षम होने के उपरांत नाते रिश्तेदारों गाँव के अन्य लोगों की भी यथासंभव सहायता 
कीइन सब कार्यों को पूरा करने हेतु पापाजी ने अपने जीवन की बलि दे दी. २५ वर्षों तक घर से दूर रहे. महीने में एक बार घर आते थे और फिर चल देते थे. कई बार उनकी ट्रेन देर रात में होती थी, तो किसी को उन्हें छोड़ने जाने में तकलीफ हो, इसलिए वे रात १० बजे ही स्टेशन चले जाते थे और ट्रेन के आने तक वहीँ सोते थे. एक गीत जो उन्हें बहुत पसंद था, उनके जीवन को चरितार्थ करता है - "मुसाफिर हूँ यारों, घर है ना ठिकाना, मुझे चलते जाना है.. बस चलते जाना.. " 

परन्तु हम दोनों भाई बहिन को कभी कोई कमी महसूस नहीं होने दी. जब भी घर आते थे, हमें ढेर सारी बातें सिखाते. गर्मी की छुट्टियों में घुमाने ले जाते और सफ़र में जब उनका 'कैसेट' चालू होता तो घंटों कैसे निकल जाते पता ही चलता. हम बच्चों में अच्छे संस्कार, अच्छी शिक्षा, पारिवारिक मूल्य, महत्वाकांक्षा, स्वावलंबन इत्यादि गुणों का आरोपण करने के लिए उनके पास सदा समय होता था.

जहाँ हम दोनों (उस समय तीनों) बच्चे बड़े हो रहे थे, वहीँ पापाजी की उम्र के साथ मेहनत और परमार्थ की भावना भी बढ़ रही थी. समाज से जो कुछ मिला है, उसे वापस देने की इच्छा के चलते उन्होंने बहुत से सामाजिक कार्य किये. गायत्री परिवार से जुड़ना उनकी इस यात्रा का एक बड़ा पहलू था. गाँव में हर साल  यज्ञ का आयोजन, मंदिर का निर्माण, नशामुक्ति अभियान, स्कूल का निर्माण - ये उनके द्वारा किये गए कुछ उल्लेखनीय कार्यों में से हैं, ऐसे कितने ही कार्य बिना किसी को बताये भी करते रहते थे.

यहाँ पर मैं मम्मी का उल्लेख करना चाहूंगी, क्योंकि जब पापाजी ड्यूटी पर होते थे तो मम्मी ने अकेले रहकर ही हम बच्चों का पालन पोषण किया है. शुरू में तो दादूजी साथ रहते थे, पर उनकी उम्र हो चली थी - सहायता तो नहीं कर पाते थे, एक सहारा मात्र थे. भारती दीदी ने खूब साथ दिया, बड़ी मम्मी- बड़े पापा और गर्ग अंकल आंटी जी ने भी. मुझे याद तो नहीं है, पर मम्मी बताती हैं जब मैं छोटी थी और पापाजी की पोस्टिंग कटनी में थी, तो सुबह बजे से उठके तैयार होते थे. आवाज़ सुनके मैं भी उठ जाती. मम्मी मुझे प्लेटफ़ॉर्म पे बैठा कर खाना बनाती, जब मैं रोने लगती तो पापाजी मुझे खिलाते. फिर वे चले जाते और रात को ११ बजे तक आते, तब तक मैं और भैया सो चुकते..शनिवार को पापाजी गाँव चले जाते और रविवार रात में आते और फिर अगले दिन से ड्यूटी. इस तरह कई कई दिनों तक हम लोग पापाजी को देख ही नहीं पाते थे

घर में मेहमानों का आना जाना तो लगा ही रहता था. एक मेहमान गए नहीं कि दूसरे गए. हम लोग मज़ाक में घर को धर्मशाला कहते थे. उस छोटे से मकान में काफी दिक्कत होती होगी. जब हम १३, जमनोत्री में रह रहे थे, उस समय घर में टेलीफ़ोन लगवाया. काले रंग का डायल वाला बड़ा सा टेलीफ़ोन. उस पर पापाजी का नियमित फ़ोन आता. बहुत सुविधा हो गई होगी मम्मी को.. उन्ही दिनों पापाजी ने मम्मी की पढाई आगे बढ़ाने हेतु १० वीं  में एडमिशन करवाया. मम्मी सफ़ेद सलवार सूट पहन कर तमरहाई स्कूल जाती थी, बहुत प्यारी लगती थी. उस समय तक गुड्डू मामाजी गए थे और काफी सहारा हो गया था. मम्मी उस साल पास हो सकी, फिर अगले साल प्राइवेट परीक्षा दी. पापाजी उन्हें शिकारा ले जाते थे परीक्षा दिलवाने. पास होने के बाद उसके अगले साल मम्मी ने ११ वीं में एडमिशन भी लिया था. पर उसी साल दादूजी का पाइल्स का ऑपरेशन होना था तो मम्मी परीक्षा नहीं दे पाईं

कुछ और समय बीता और हमारा अपना घर बन गया. घर का नक्शा पापाजी ने खुद ही बनाया था. घर बनने में ढाई साल लगे. और जब बन कर तैयार हुआ तो किसी आलीशान बंगले से कम नहीं लगता था. बड़ा सा हॉल, हॉल के बीचों बीच सीढियां, सीलिंग से लटकती झूमर. नए घर में बाथरूम थे, शायद इसलिए क्योंकि पुराने घर में मेहमानों की वजह से बाथरूमों की बड़ी किल्लत होती थी. इस घर का हर कमरा पापाजी ने बहुत सोच समझ कर बनवाया था. बच्चों वाले कमरे की sky blue थीम, बेडरूम की पिंक , पूजा वाला कमरा, लाइब्रेरी.. हाँ लाइब्रेरी.. पापाजी जैसे साहित्यिक व्यक्ति के घर में लाइब्रेरी कैसे न होती? उसमें जितनी सारी किताबें थी उससे ज्यादा तो कई बार गाँव भेज दी. पापाजी का मंत्र था - "ज्ञान बांटो". छत पर एक छोटा सा शिवमंदिर भी बनवाया था. तभी तो घर का नाम शिवालय रखा था. मुझे घर के परदे हमेशा से बहुत पसंद थे. और परदों का चुनाव कितना मुश्किल होता है ये मुझे कुछ महीने पहले समझ आया जब मैंने नए परदे ख़रीदे. कहने की ज़रूरत नहीं, पुराने परदे नए परदों से ज्यादा सुन्दर हैं. खैर, इस महल जैसे घर में रहने का सुख तो हम बच्चों को ही मिला. पापाजी तो कुछ ही दिनों के लिए आते थे. वे मम्मी से कहा करते थे , "तुम लोग आराम से रहो, मैं तो सड़क पे पड़ा हूँ, सड़क पे पड़े पड़े ही चला जाऊंगा."

समय बीतता गया, पापाजी कई बड़ी बड़ी मुसीबतों से उबरते गए. डिंडोरी के पास एक एक्सिडेंट हो गया था. शायद उनकी पीठ का फ्रेक्चर बताया था. फिर एक एक्सिडेंट बनारस में हुआ था. और वो कोर्ट केस कैसे भूल सकती हूँ, वो दो साल पापाजी अक्सर घर पर ही रहते थे, क्योंकि पेशी जबलपुर में होती थी. पर देर रात तक वकीलों के चक्कर काटना, हमेशा परेशानी से घिरे रहना.. जब वो केस जीता गया, उन्ही दिनों मनोज भैया की शादी थी. मनोज भैया को केस जीतने का पूरा क्रेडिट दिया गया और मम्मी ने शादी में काफी सहायता दी.

समय के साथ पापाजी का रुझान आध्यात्मिक जगत की ओर बढ़ता गया. पहले आसाराम बापू, फिर कई और गुरुओं के बाद गायत्री परिवार, बाबा रामदेव और अंत में शिवयोग. ऐसा प्रतीत होता है कि वे आध्यात्मिक शान्ति कि खोज में भटक रहे थे, जो बहुत हद तक गायत्री परिवार और शिवयोग से जुड़ने के बाद प्राप्त हुई

पापाजी का बहुत बार मन करता था नौकरी छोड़ के V.R.S. ले लें. हम लोगों से अक्सर पूछा करते थे. मैं हमेशा उनका अनुमोदन करती थी. पर वे कभी निर्णय नहीं ले पाते थे. कारण पैसे या पद की लालसा नहीं  थी. धीरे धीरे जो कारण सामने आया, वह ये कि नौकरी से एक रुतबा, एक इज्ज़त है समाज में. इस रुतबे की ज़रूरत सामाजिक तौर पर तो थी ही, साथ ही अब बच्चों की शादियों के लिए भी ज़रूरी था.

भैया का जे.पी. कॉलेज में एडमिशन हुआ और उसके अगले साल मेरा मणिपाल में एडमिशन हुआ, तो पापाजी को अपनी ज़िम्मेदारी लगभग पूरी होती दिखी. वे अब पूर्णतः परमार्थ में लग चुके थे. उन्ही दिनों शारीरिक बीमारियों ने एक एक कर जकड़ना शुरू कर दिया. पहले हर्निया का ऑपरेशन, फिर osteoporosis का पता चला, और जो अगली बीमारी का पता चला, उसने तो हम सब के जीवन में  भूचाल ही ला दिया..
अक्टूबर २००८ की बात है. मुझसे मिलके मम्मी पापाजी लौटे थे. घर पे बाबूजी आए हुए थे, पापाजी को खाना खाते हुए ठसका लग गया. बाबूजी के कहने पर वे लोग हैदराबाद गए जहाँ जांच के बाद पता चला कि esophagus में कैंसर है. उसके बाद की कहानी तो बस कहानी बन कर रह गई, या यूँ कहें कि case summary बन कर रह  गयी.

वो पहली बार था जब पापाजी ने मुझे sms किया था और मुंबई आने के लिए 'पूछा' था. मैं तुरंत गई. तब तक इलाज शुरू हो  चुका था. मम्मी पापाजी कुछ समय मुंबई में ही रहे. फिर कुछ और समय भोपाल में. इन कुछ महीनों का संघर्ष रंग लाया और मार्च की रिपोर्ट में कैंसर का नामोनिशान नहीं था. पापाजी ने फिर से ड्यूटी पर जाना शुरू कर दिया. अपनी किताब भी लिखी. समाज सेवा में इतने मग्न हो गए की कब बीमारी ने फिर से दस्तक दी, पता भी चला. दुर्भाग्य तो हमारा ही थाउस पर डॉक्टर की गलती ने सत्यानाश कर दिया. अगले एक साल लगातार कीमो, फिर CT , फिर बढ़ी हुई बीमारी - यही सिलसिला चलता रहा .पर पापाजी ने कभी निराशा को अपने मन पर हावी नहीं होने दिया. ध्यान साधना में तल्लीन हो गए. पर अब उन्होंने कुछ और काम भी चालू कर दिया था - हमें तैयार करने का. हमारे भविष्य की व्यवस्था, मानसिक तौर पर तैयार करना, मम्मी की व्यवस्था. अंत में सिर्फ मम्मी की चिंता रह गई थी उन्हें..

बीमारी के इन सालों में मम्मी-पापाजी दो नहीं एक बनकर रहे. मम्मी हमेशा पापाजी के साथ होतीं, उनके खाने पीने का ध्यान रखतीं, उनके डॉक्टर्स से बात करतीं, लाइनों में लगतीं, फ़ाइल लेट होने पर लड़तीं. पापाजी की सेहत आखिरी समय तक अच्छी रही तो सिर्फ और सिर्फ मम्मी की मेहनत से. पापाजी ने कहीं लिखा है, "चार महीनों से सो नहीं पा रहा हूँ. इस समय एक जानकी ही है जो साथ है" .. सही भी है. रात में कितने भी बजे पापाजी खाँसें, मम्मी उठके उनकी पीठ पर हाथ फेरने लगतीं..कितने ही महीनों वे भी नहीं सोईं, और आज भी कहाँ सो पाती हैं.. कभी रात में अचानक नींद खुल जाये तो पापाजी को याद करके घंटों नहीं सोतीं.. 

पापाजी और मम्मी ने ये पहला वनवास तो साथ में काट लिया. परन्तु मम्मी के भाग्य में अभी एक और वनवास लिखा था - पापाजी के बिना रहने का. पापाजी जानते थे कि वे चाहते हुए भी मम्मी को ये वनवास भोगने हेतु छोड़े जा रहे हैं. वे यह भी जानते थे कि उनके चले जाने के बाद मम्मी भी जीना नहीं चाहेंगी इसलिए उन्होंने मम्मी को मेरी कसम दे दी कि स्वाति को तुम्हारी ज़रूरत है, तुम मरना नहीं. कह गए कि अब तुम ही बच्चों के लिए मम्मी पापा दोनों होगी.
और मम्मी उस वचन में बंधी हम बच्चों के लिए जी रही हैं. उन बच्चों के लिए जो उनके पास हैं भी नहीं, जो सिर्फ दिन में एक बार फोन कर लेते हैं. और रह भी उन लोगों के बीच में रही हैं जिन्होंने पापाजी को गए हुए महीने भी नहीं होने दिए और अपने रंग बदलन शुरू कर दिया है.
जंगल में वनवास बिताती हुई सीता को कम से कम महर्षि वाल्मीकि का आश्रय तो था! यहाँ मेरी सीतास्वरूपा माँ तो कैकेयी और मंथरा जैसे लोगों से घिरी हुई हैं.. मैं नहीं जानती कि इन राम सीता को कभी पूजा जायेगा या नहीं, पर इतना ज़रूर समझ गयी हूँ कि हर युग और काल में राम-सीता की जोड़ी का जीवन कष्टमय और दुखपूर्ण होता है.. शायद हर राम-सीता का यही प्रारब्ध है..

5 comments:

  1. I don't have words betu to describe how i feel about it. And you know that!

    Bas itna kahunga, ki mujhmein shayad hi kabhi itni himmat aaye ki main aisa kuch likh paaun. Filhaal to main koson door hoon, kabhi kuch express karna hota hai, to shabdon ki chaashni mein chhupakar kuch likh deta hoon.

    aur haan sahi kaha tumne, unfortunately हर राम-सीता का शायद यही प्रारब्ध है..

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  2. i always had a feeling that such a write up was due for papaji.. no words can really do justice in describing the person he was :')

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    1. स्वाति यह पोस्ट हृदय को ब्रह्मास्त्र की तरह लगी है। बहुत मन दुखी है।

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  3. your words touched me frm inside..u r a strong girl swati..m proud to have a friend like u..papaji must be happy to see her daughter to be strong enough to tackle all the problems on her own..

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